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    पूर्व सैनिक बोले- डर क्या होता है पता नहीं था:साथी शहीद हुआ, बंकर में गुजारे दिन-रात; भारत-पाक युद्ध के हीरोज के किस्से

    2 months ago

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    जहां हमारा बेस था, वहां हमने ट्रेंचेज बनाए थे। जमीन में गड्ढे या खंदक को ट्रेंचेज कहते हैं। हमारे लिए खाना लेकर आर्मी की गाड़ी आती थी। सायरन बजाती थी। हमारे पास एक मिनट होता था खाना लेने के लिए। खाना लेकर भागकर हम फिर ट्रेंचेज में लौटते थे, क्योंकि जरा सी चूक जानलेवा हो सकती थी। ये अनुभव है 88 साल के गुलाब राय का, जिन्होंने 1971 का भारत-पाकिस्तान युद्ध लड़ा है। ऐसा ही अनुभव राजपूताना राइफल्स के सूबेदार बीसी कटोच का भी रहा है। उन्होंने 1965 का भारत-पाकिस्तान युद्ध लड़ा। वे जम्मू कश्मीर के पुंछ में पोस्टेड थे। आजादी के बाद भारत पाकिस्तान के साथ तीन जंग लड़ चुका है।1999 में कारगिल युद्ध में भी पाकिस्तान को मुंह की खानी पड़ी थी। अब एक बार फिर भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव के हालात हैं। दैनिक भास्कर ने 1965, 1971 और कारगिल युद्ध में पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब देने वाले जांबाज सैनिकों से बात की। ये भले ही उम्रदराज हो चुके हैं, मगर इनका जज्बा और जोश अभी भी बरकरार है। सिलसिलेवार पढ़िए तीनों युद्धों के किस्से... जब जंग में उतरा तो डर महसूस ही नहीं हुआ कटोच बताते हैं- मैंने 19 साल की उम्र में आर्मी जॉइन की थी। 1965 में जब पाकिस्तान के साथ जंग हुई, तब मुझे जॉइन किए दो ही साल हुए थे। मैं पुंछ के राजपूताना राइफल्स की थर्ड बटालियन में पोस्टेड था। कटोच कहते हैं कि मेरे पापा आजाद हिंद फौज के लिए लड़े थे। वो हमेशा कहते थे कि जीवन में कुछ करना है तो आर्मी ही जॉइन करना। पापा के कहने पर आर्मी तो जॉइन कर ली थी लेकिन जंग क्या होती है ये नहीं पता था। ये जरूर सोचता था कि कुत्ते की मौत मरने से बेहतर है, बहादुर की मौत मरना। उम्र साथ थी तो जोश भी बहुत था। डर क्या होता है, वो तो पता ही नहीं था। बंकर में कंधे तक पानी भरा था कटोच ने कहा- जंग शुरू हो चुकी थी। हम राजौरी से पुंछ जा रहे थे, वहां दुश्मन ने हमारा रास्ता ब्लॉक किया था। रोड और पुलिया तोड़ दी थी। हम वापस राजौरी पहुंचे, तब तक बारिश शुरू हो गई। पूरे इलाके में पानी भर गया था। वहां दो खाली मकान थे। हमने तय किया कि बंकर से निकलकर उन मकानों में शरण ली जाए, तभी पीछे से फायरिंग शुरू हो गई। यूनिट को लगा कि पाकिस्तानी सेना पहुंच गई है। मगर, फायरिंग भारतीय सेना ने ही की थी ताकि घुसपैठिये खाली मकानों पर कब्जा न कर सकें। उस समय कम्युनिकेशन के साधन नहीं थे, लिहाजा हमारा भारतीय सेना से संपर्क नहीं हो सका और रातभर हम बंकर में ही रहे। हमारे कंधे तक पानी भर चुका था। बारिश रुकने के बाद जैसे-तैसे हम बाहर निकले। वहां पाकिस्तान ने बमबारी शुरू कर दी। हमारी तरफ से जवाबी फायरिंग की गई। जंग से देश बहुत पीछे चला जाता है पुंछ जाने के दो दिन पहले हमारे मोर्चे के पास हमारा बंकर था। वहां पर पाकिस्तान ने तीन बम गिराए, एक धान के खेत में गिरा और एक उससे 50 मीटर दूर गिरा। जैसे ही बम गिरा, हम तो मोर्चे में कूद गए लेकिन हमारा साथी वहां खड़ा था। उसको बम का शैल लगा और वो वहीं एक्सपायर हो गया। इसके बाद तुरंत सीजफायर हो गया और हम अपनी अपनी जगह पर तैनात हो गए। 12 दिन तक हम बंकर में ही रहे। कटोच कहते हैं कि जंग के बारे में बताना शुरू करूंगा तो पूरा दिन निकल जाएगा। जंग का टाइम हमारे लिए बहुत एडवेंचरस था, पर जंग से बहुत नुकसान होता है। देश कई साल पीछे चला जाता है। पाकिस्तानी एरिया की तस्वीरें इंटेलिजेंस को भेजते थे 1971 की जंग के हालात बताते हुए गुलाब राय कहते हैं- मैं दिसंबर के पहले हफ्ते में अपने परिवार के साथ था। अचानक घर के सामने दो ट्रक आए। मुझे तुरंत ट्रक में बैठने के लिए कहा गया। मैंने हाथ में यूनिफॉर्म-जूते उठाए और ट्रक में कूदकर बैठ गया। पांच मिनट में ही ट्रक हमें लेकर आदमपुर की तरफ चल दिया। वहां पता लगा कि वी आर इन ए स्टेट ऑफ वॉर विद पाकिस्तान। हमारा एयरफोर्स स्टेशन बॉर्डर से एकदम सटा था। सुखोई-7 ने पाकिस्तान की नाक में दम कर रखा था। वह पाकिस्तानी एरिया में बमबारी कर वापस लौट आता था। हमने खुद को सेफ रखने के लिए ट्रेंचेज (जमीन के नीचे गड्ढे) बनाए थे। हमारा खाना-पीना, रहना-सोना सबकुछ वहीं था। एयरफोर्स पायलट के लिए बंकर बने हुए थे। एयरक्राफ्ट के विंग्स में कैमरा लगाते थे राय आगे कहते हैं- जैसे सूरज की किरणें चमकती हैं, वैसे ही पाकिस्तान हमारी तरफ बमबारी करता था। मैं फोटोग्राफर था। हम लोगों को एयरक्राफ्ट के विंग्स में कैमरा लगाना पड़ता था। एयरक्राफ्ट के पीछे कैमरे लगाने का काम मेरा था। इन फोटो को हम लोग इंटेलिजेंस को भेजते थे। पाकिस्तान ने बहुत कोशिश की हमारी एयरफोर्स यूनिट का पता लगाने की, लेकिन वो पता नहीं लगा सका। बस एक बार हमारे एरिया में बम गिरा था क्योंकि गांव वालों ने शादी में पेट्रोमैक्स लाइट जला दिए थे। खाना लेने के लिए मिलता था केवल 1 मिनट गुलाब राय कहते हैं- सेना की एक गाड़ी में खाना आता था। सायरन बजने पर हम ट्रेंचेज से बाहर आते थे। हमारे पास सिर्फ एक मिनट रहता था। उसी में हमें खाना लेना होता था। जिस दिन खाना लेने में लेट हो गए तो समझो उस दिन या तो भूखा रहना पड़ता था या फिर दूसरा कोई इंतजाम करना होना था। हमारे ट्रेंचेज के पास ही हमारा बेस था, जहां कैंटीन थी। खाना न मिलने की स्थिति में एक आदमी भागकर कैंटीन जाता था। वहां अंडे उबालने के लिए रख देता था। कुछ देर बाद भागकर उबले अंडे लेकर आता था। उसे खाकर हम अपनी भूख मिटाते थे। सुबह नाश्ते में चाय और पराठे मिलते थे, वो भी भागकर ही लाना पड़ता था। इस बीच चाय गिर जाए तो वापस लेने नहीं जाते थे। इस तरह हम लोग 13 दिन तक ट्रेंचेज में रहे। कारगिल की जंग शुरू होने से पहले पिताजी ने भावुक पत्र भेजा द्रिगेंद्र प्रताप सिंह कहते हैं- मई का महीना था। मैं सूरतगढ़ में पोस्टेड था। वहां से हमें आगे जाना था। उस वक्त न्यूज चैनल पर कारगिल वॉर की खबरें आना शुरू हो चुकी थीं। मेरे पिताजी न्यूज चैनल देखते थे। वो भी समझ गए कि अब कुछ ही दिन में जंग शुरू हो जाएगी। उन्होंने मुझे एक चिट्ठी भेजी। उसे पढ़कर मैं एक-दो दिन तक परेशान रहा। उन्होंने लिखा था कि मातृभूमि की सेवा करने का सबको मौका नहीं मिलता, तुम्हें मिला है। मातृभूमि की रक्षा करते हुए तुम्हें अपना बलिदान भी देना पड़े तो मेरे लिए इससे ज्यादा गर्व की कोई बात नहीं होगी। द्रिगेंद्र कहते हैं- जब मैंने उस पत्र को पढ़ा तो पहले लगा कि बताइए कैसे पिता हैं? बेटा मौत के मुंह में जा रहा है और कह रहे हैं कि उनके लिए गर्व की बात है। मेरा एक सहयोगी राजस्थान का रहने वाला था। मुझे परेशान देखकर उसने पूछा कि घर में सब ठीक है, तो मैंने कहा- हां, ठीक है। मगर, वो नहीं माना तो मैंने उसे लेटर पकड़ा दिया। सीईओ तक चिट्ठी की बात पहुंच गई थी द्रिगेंद्र बताते हैं- दो दिन बाद हम लोग यूनिट में लौटे। हमारे सीईओ एवी पारलेकर थे। उनकी हर चीज का डेमो देने की आदत थी। किसी ने सीईओ साहब तक पिताजी की चिट्ठी की बात पहुंचा दी थी। उन्होंने मुझसे वो चिट्ठी मांगी और उसे हर जगह सर्कुलेट कर दिया। सभी को चिट्ठी पढ़ने के आदेश दिए गए। उनका मकसद यही था कि हमारी यूनिट का हर शख्स इसी जज्बे के साथ जंग में शामिल हो। कुछ दिन बाद हम लोग कारगिल पहुंच गए। वहां नेशनल हाईवे अल्फा वन पर डिप्लॉयड हो गए। जिसके एक तरफ पाकिस्तान और दूसरी तरफ भारत था। हमारे पास दिन का खाना था, लेकिन रात को हमारे पास खाना नहीं होता था। हम दिन में हॉल्ट करते थे और रात में मूव करते थे। अपनी गन रखने के लिए 27 फीट लंबा, 17 फीट चौड़ा और 2.5 फीट गहरा गड्ढा बनाते थे। सोने के लिए भी 12x8x7 फीट गड्ढा बनाते थे। इसके ऊपर बल्ली वगैरह डालकर सोते थे। ये खबर भी पढ़ें... कर्नल सोफिया 5वीं तक एमपी के छतरपुर में पढ़ी हैं, चाचा बोले- बचपन से कहती थी आर्मी ही जाॅइन करूंगी पाकिस्तान में आतंकी ठिकानों पर हुए ऑपरेशन सिंदूर की ब्रीफिंग करने वाली कर्नल सोफिया कुरैशी का पैतृक गांव मध्यप्रदेश में है। सोफिया ने छतरपुर जिले के नौगांव में पांचवीं तक की पढ़ाई की। एयर स्ट्राइक की प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद सोफिया ने नौगांव के चच्चा कॉलोनी में रहने वाले उनके परिवार को कॉल कर कहा- मिशन पूरा हुआ, कैसा लगा, धमाका कर दिया न। पढे़ं पूरी खबर... आतंकियों का खात्मा कर शहीद हुए थे इंदौर के गौतम, माता-पिता ने कहा- युवा राष्ट्रप्रेम का जज्बा दिखाएं भारतीय सेना में लेफ्टिनेंट गौतम जैन 1 नवंबर 2001 को कश्मीर में आतंकियों से लड़ते हुए शहीद हो गए थे। माता-पिता एसपी जैन और सुधा जैन ने कहा- हमें गर्व है कि हमारे बेटे ने 21 साल की उम्र में देश के लिए बलिदान दिया। हमारी युवाओं से अपील है कि वे फालतू शौक छोड़कर देशभक्ति का जज्बा दिखाएं। देश के लिए अपना जीवन दें। पढे़ं पूरी खबर...
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