नर्मदा नदी में इतना प्लास्टिक कि मछलियों में पहुंच रहा:वडोदरा की MS यूनिवर्सिटी की रिसर्च में हुआ खुलासा, दो किस्म की फिशेज में मिले माइक्रोप्लास्टिक
4 hours ago

गुजरात और मध्य प्रदेश की जीवनदायिनी नर्मदा नदी भी प्लास्टिक के कचरे से जहरीली होती जा रही है। इतना ही नहीं, अब नदी से पकड़ी जाने वाली मछलियों के पेट में भी प्लास्टिक के कण पाए जा रहे हैं। अब सोचिए, इन मछलियों को खाने वालों की सेहत का क्या हाल होगा? नर्मदा नदी से पकड़ी जाने वाली मछलियों पर यह रिसर्च वडोदरा स्थित महाराजा सयाजीराव यूनिवर्सिटी (MSU) के जूलॉजी डिपार्टमेंट ने की है। रिसर्च टीम ने भरूच के पास भड़भूत और हंसोत गांवों से पकड़ीं गई दो किस्म की मछलियों की जांच की। जांच में पाया गया कि मछलियों के पेट में नायलॉन के धागे और प्लास्टिक के छोटे-छोटे कण भी मौजूद थे। इसी शोध को लेकर दिव्य भास्कर के रिपोर्टर रंजीत मकवाणा ने MSU के जूलॉजी डिपार्टमेंट के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. धवल भट्ट से बात कर रिसर्च की जानकारियां लीं। पढ़ें यह ग्राउंड रिपोर्ट ... मछुआरों के दो गांवों से ली गईं मछलियां
महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय, वडोदरा के जीव विज्ञान विभाग के स्टूडेंट जलीय जीवों पर लगातार शोध कर रहे हैं। ऐसे ही एक शोध के तहत, प्रियांशु और रश्मि रेस्माकर नाम दो स्टूडेंट्स भड़भूत और हंसोत पहुंचे। दोनों ने ज्यादा बिकने वाली दो प्रजातियों की मछलियां मुगली सेफेलस और मडस्किपर खरीदीं और फिर टीम ने इन पर रिसर्च किया। जांच में पता चला कि दोनों ही मछलियों के पेट में प्लास्टिक और नायलोन की रस्सी के के कई बारीक कण भी थे। इस बारे में एमएस यूनिवर्सिटी के जूलॉजी विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. धवल भट्ट ने दिव्य भास्कर को बताया- अगर ये छोटे कण मछलियों के पेट में पाए गए हैं, तो संभावना है कि ये मछलियों की मांसपेशियों में भी मौजूद हों। इसलिए, अब उस दिशा में भी आगे की शोध चल रही है। दरअसल ये मछलियां नदी की तलहटी में अपना भोजन खोजती हैं। और नदी की तलहटी से मिट्टी भी खाती हैं। इसलिए नदी में मौजूद प्लास्टिक के कण इनके पेट में पहुंच जाते हैं। डॉ. धवल भट्ट ने आगे बताया- हमने शोध के लिए नदी के निचले इलाके को चुना। क्योंकि जहां नदी का पानी समुद्र में मिलता है, वहां आसपास का निचला इलाका नदी के पानी के साथ कचरा बहाकर ले जाता है। भड़भूत और हंसोत नदी के निचले इलाके में हैं। इसलिए हमने वहीं से मछलियां खरीदीं। जब इनके शरीर पर शोध किया, तो मछलियों के पेट से निकाले गए पदार्थों में माइक्रोप्लास्टिक की मात्रा ज्यादा पाई गई। जैसा कि आप जानते हैं कि प्लास्टिक विघटित नहीं होता, इसलिए यह छोटे-छोटे कणों में टूट जाता है। ये छोटे कण इतने बारीक होते है कि हम उन्हें अपनी नंगी आंखों से नहीं देख सकते। प्लास्टिक के ये सूक्ष्म कण मिट्टी में मिल जाते हैं और नदी तल में मिट्टी में मिल जाते हैं। इस तरह फिर ये मछलियों के शरीर तक पहुंच जाते हैं। गुजरात के जिन गांवों से ये मछलियां पकड़ी गईं, उस इलाके से बड़ी संख्या में मछलियां पकड़ी और बेची जाती है। स्थानीय लोग तो रोजाना ही ये मछलियां खाते हैं। हालांकि, अब इस शोध की जरूरत है कि मछलियों के जरिए इंसानों में कितना प्लास्टिक पहुंच रहा है। इसके बाद दिव्य भास्कर की टीम भरूच के पास भड़भूत गांव पहुंची, जहां से यह मछली खरीदी गई थी। भड़भुत गांव नर्मदा नदी के किनारे ही बसा हुआ है। यहां की ज्यादातर आबादी मछुआरे का काम करती है। दिव्य भास्कर की टीम नदी किनारे पहुंची तो देखा कि नदी के चारों ओर गंदगी के ढेर लगे हुए हैं और नदी की ओर जाने वाली एक आरसीसी सड़क है। इस पर भी ढेर सारे प्लास्टिक के थैले और बोतलों का अंबार लगा हुआ है। यह पूरा कचरा सीधे नदी में मिलता है। हमने करसनभाई नाम के एक मछुआरे से बात की। उन्होंने कहा- हमारा मुख्य भोजन मछली और चावल है। पहले मछली अच्छी हुआ करती थी, लेकिन अब उसे खाने या पकाने पर भी उसमें से बदबू आती है। पहले मछली खाते समय कोई गंध नहीं आती थी। नर्मदा नदी का पानी बहुत प्रदूषित हो गया है। प्लास्टिक तो है ही, आसपास की फैक्ट्रियों से भी केमिकल पानी में मिल रहा है। वहीं, गांव के मछली व्यापारी चिमनभाई टंडेल ने कहा- हम कई पिछले सालों से मछली का व्यापार कर रहे हैं और हमारी मछलियां कोलकाता तक जाती हैं। जब हमने उनसे इन दो मछलियों पर हुई रिसर्च के बारे में बताया तो उन्होंने भी माना कि नदी में प्लास्टिक की भारी मात्रा है। उन्होंने कहा- जब मछुआरे नदी में जाल फेंकते हैं तो मछलियां कम और जाल में प्लास्टिक का कचरा ज्यादा फंसता है। एक बार में 15 से 20 किलो तो प्लास्टिक का कचरा ही निकलता है। इसी से अंदाजा लगा लीजिए कि नर्मदा नदी में कितना प्लास्टिक है? मछुआरे नावों से समुद्र और नदी तक जाने के लिए काफी पैसा खर्च करते हैं, लेकिन कचरे के चलते उन्हें कोई खास फायदा नहीं मिलता।
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